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उसका दोष क्या है भाग - 9 15 पार्ट सीरीज

       
               उसका दोष क्या है
                    (भाग-9)

             कहानी अब तक
रमा अपने भाई रमेश पर विद्या से शादी करने के लिए दबाव डालती है।
                  अब आगे 
रमेश रमा की बातें खामोशी से सुनता रहा। जब रमा ने अपनी बात समाप्त कर ली,तब रमेश ने कहा  -    "तू ही बता रमा मैं क्या करूं। क्या तुझे लगता है घरवाले मेरी बात मानेंगे"?
  रमा -   "यह बात तो आपको पहले सोचना चाहिए था। क्या आपने विद्या को वचन देने के पहले यह सोचा था ? क्या आपको नहीं पता था हमारे घर वाले नहीं तैयार होंगे,आप दोनों की शादी के लिए ! फिर आपने इस रास्ते पर अपने कदम क्यों बढ़ाया, और विद्या को भी खींच लिया। वह कितनी आशाएं लगाए बैठी है। उसके घर वाले तो तैयार हो जाएंगे, आप थोड़ी हिम्मत कीजिए। आप अपने घर में भी कहिए,और उसके घर जाकर भी विद्या का हाथ उसके माँ बाबा से मांग लीजिए। मेरी सहेली आपसे इतनी अधिक जुड़ गई है कि वह आपके सिवा किसी अन्य से विवाह के लिए सोच भी नहीं सकती। वह किसी और से विवाह करेगी भी नहीं। इसलिए आपको हिम्मत दिखानी ही होगी"।
   रमेश उसे आश्वासन देता है और अपने घर में विद्या से विवाह के लिए अपनी मां से बात करता है। विद्या का नाम सुनते ही उसके घर वालों ने हँगामा करना शुरू कर दिया। उसके पिता तो अपनी जान देने के लिए ही तैयार हो गये। उसके पिता का कहना था - विद्या की जाति ही नहीं समाज भी पूरी तरह अलग है,इसलिए वे दूसरे समाज से,दूसरी संस्कृति से लड़की अपने घर में नहीं ला सकते। उससे उत्पन्न संतान का अपने समाज में विवाह होना तो कठिन होगा ही,साथ ही वे जाति बहिष्कृत भी हो जाएंगे। इसलिए वे यह विवाह स्वीकार नहीं कर सकते। यदि रमेश को विद्या से विवाह करना है तो वह पहले अपने पिता की अर्थी को कंधा देकर उन्हें मुखाग्नि दे दे। यदि वह अपने पिता को जीवित देखना चाहता है तो उनके द्वारा तय किए गए रिश्ते को स्वीकृति देनी होगी,और उसी लड़की से विवाह करना होगा जिसे उसके पिता ने चुना है। 
रमेश दुविधा में पड़ गया। एक तरफ विद्या और एक ओर उसका पूरा परिवार। वह किसे चुने और किसे छोड़े,समझ नहीं पा रहा था। अंत में प्रेम के ऊपर पुत्र के कर्तव्य ने विजय प्राप्त किया,और उसने पिता के द्वारा तय किए गए रिश्ते को अपनी स्वीकृति दे दी। उसने अपने पिता से कहा -   
   "पिताजी आपने जहां मेरा विवाह तय किया है,मैं वहां विवाह करने के लिए तैयार हूं। मैं अपने प्रेम के लिए,अपने स्वार्थ के लिए अपना कर्तव्य नहीं भूल सकता"।
पिता प्रसन्न हो गये। रमेश ने रमा से कहा -   "रमा एक बार तू मेरी मुलाकात विद्या से करवा दे,मैं उससे क्षमा मांगना चाहता हूं"।
    रमा -   "मैं विद्या को अपने घर आने के लिए तो नहीं कहूंगी। हमारे कॉलेज से निकलने के बाद आप विद्या से मिल लीजिएगा"।
    रमेश -    "अच्छी बात है"।
  अगले दिन रमेश रमा के कॉलेज से थोड़ा आगे हटकर विद्या का इंतजार कर रहा था। विद्या के साथ रमा वहां तक आई और रमेश से कहा -    "मैं घर जा रही हूं,आप विद्या को उसके घर तक छोड़ दीजिएगा"।
    कहकर रमा एक ऑटो में बैठ कर घर चली गई। रमेश विद्या को लेकर नक्षत्र वन आया। एक पेड़ के नीचे वे दोनों बैठे। कुछ देर दोनों खामोश रहे। रमेश को समझ नहीं आ रहा था अपनी बात वह विद्या से कैसे कहे। जब कहने के पहले उसका दिल फट रहा है,तो विद्या का क्या हाल होगा सुनकर। विद्या ने ही मौन भंग किया।
   विद्या -   "कहिए आप क्या कहना चाहते थे"।
    रमेश -  "विद्या तुम्हें रमा से हमारे घर की स्थिति की पूरी जानकारी हो गई होगी। मैं पुत्र कर्तव्य के आगे हार गया। मेरा प्रेम हार गया विद्या,मैं बहुत कमजोर निकला। जीवन भर साथ निभाने का वादा करके मैं तो तुम्हारे साथ एक मोड़ भी नहीं पार कर पाया। मुझे क्षमा करना विद्या,मैं तुम्हारे योग्य नहीं। बहुत कमजोर हूं मैं,बहुत कमजोर"।
   रमा चुपचाप खामोशी से सारी बातें सुनती रही, अपनी बात कह कर रमेश भी खामोश हो गया। विद्या की आंखों से आंसू बह रहे थे – निर्झरिणी समान!
    रमेश -   "आंसू मत बहाओ विद्या,इसे पोंछ लो। तुम मुझे गाली दो,डाँटो,तुम मुझे सजा दो! परंतु आंसू मत बहाओ"।
विद्या उठ कर खड़ी हो गई और कहा - "मैं जा रही हूं"।
रमेश ने उसका हाथ थाम लिया  -  "क्या तुम मुझे सजा नहीं दोगी"?
    विद्या -   " प्यार में सजा नहीं दी जाती,अब आज से आपका रास्ता अलग है। आप मुझसे मिलने का प्रयत्न कभी मत कीजिएगा"।
 रमेश जी ओर अपनी पीठ फेर वह आगे बढ़ने लगी।
   रमेश -   "चलो मैं तुम्हें घर तक छोड़ देता हूं"।
    विद्या -   "रहने दीजिए मेरा आपका साथ यहीं तक था। जब मैं पूरी जिंदगी आपके बिना चल सकती हूं,तो अभी क्यों नहीं"।
  कहकर उसने झटके से अपना हाथ छुड़ाया और वहां से निकल गई। रमेश उसे पुकारता ही रह गया, परंतु उसने पीछे पलट कर भी नहीं देखा। रमेश भागता हुआ बाइक के पास आकर उसे स्टार्ट किया, और तेजी से बढ़ाकर विद्या के पास आया -    " तुम्हें मेरी सौगंध है विद्या मेरे नहीं तो रमा के वास्ते, रमा की दोस्ती के वास्ते बाइक पर बैठ जाओ; शाम होने वाली है"।
    विद्या -  "आपने अच्छा नहीं किया। अपनी सौगंध,रमा की दोस्ती का वास्ता देकर आपने अच्छा नहीं किया"।
   कहकर वह रमेश की बाइक पर बैठ गई। रमेश ने उसे घर के मोड़ के पास छोड़ा और चला गया। विद्या वहां से घर जाती हुई दिल में सिसक रही थी। उसकी इच्छा हो रही थी कहीं बैठकर जी भर कर रोने की। उसे रमा की बातें आ रही थीं। रमा ने तो उसे सावधान किया था,परंतु सावधान तब किया था जब वह रमेश के प्रेम में आकंठ डूब चुकी थी। परंतु इसमें  रमा का भी दोष क्या था ? उसने रमा से पूछ कर तो रमेश से दिल लगाया नहीं था। उसकी ओर तो वह रमा की अनुपस्थिति में ही आगे बढ़ी थी। रमा को तो उनकी निकटता मोहन भैया के विवाह में अनुभव हुआ,और उसने तभी इस संबंध के लिए मना कर दिया था,कितना समझाया था उसे रमा ने। घर आकर विद्या बिना कपड़े बदले ही बिस्तर में जाकर लेट गई। माँ ने उसे ऐसे देख पूछ लिया - 
     "क्या हुआ विद्या आज तुमने कपड़े भी नहीं बदले और लेट गई हो, तबीयत ठीक है ना ? आने में भी देर हुई।
   विद्या की आंखों में आंसू थे जिसे  वह मां से छुपाते हुए बोली  -    
   "आज कॉलेज में एक्स्ट्रा क्लास हो गया था। और सिर बहुत जोर दर्द कर रहा है। आँखे खोलने की भी इच्छा नहीं हो रही है,इसलिए मैं लेट गई"।  
माँ बाम लेकर आई और उसके माथे में लगाकर मालिश करने लगी साथ ही वीनू को आवाज दिया -     "वीनू बेटा दीदी के लिए अदरक डालकर चाय बना कर ले आओ"।
   माँ से कुछ कहते नहीं बना। माँ उसका सिर दबा रही थीं साथ ही बोल रही थीं -  
  " लगता है सिर में बहुत अधिक दर्द है,आंख से आंसू निकल रहे हैं"।
  आखिर विद्या खामोशी से आंखें बंद कर  मां की गोद में सिर रख कर लेट गई। उसने बहुत मुश्किल से अपनी हिचकियों को रोका हुआ था। माँ को अपनी इन हिचकियों के लिए क्या सफाई देती।
      रमा से उसके भैया मोहन ने विद्या और रमेश के विषय में जानकारी ली,क्योंकि उन्हें भी घर के हंगामे में दोनों के रिश्ते के संबंध में जानकारी मिल गई थी। रमा ने उन्हें सब कुछ सही सही बतला दिया और फिर कहा  -  
    "भैया आपने सही कहा था। काश कि मैं आपके कहे अनुसार उसी समय विद्या को सावधान कर देती,तो बात इतनी आगे नहीं बढ़ती। मुझे जब  अनुभव हुआ उनकी निकटता का उस समय तक इनका संबंध बहुत आगे बढ़ चुका था,और विद्या को रमेश भैया पर तो अटूट विश्वास था। भैया मेरे कारण ही आज विद्या की जिंदगी में यह दु:ख भरा दिन आया है। काश मैंने आपकी बात मान ली होती"।
     रमा ऐसा कहकर सिसक सिसक कर रोने लगी। मोहन ने उसका सिर सहलाते हुए कहा  - 
    "मत रो रमा,कुछ बातों पर हमारा वश नहीं रहता, जो ईश्वर की मर्जी होती है वही होता है। तुम्हें जब अनुभव हुआ तब तुमने अपना कर्तव्य निभाया न। अब सब कुछ ईश्वर पर छोड़ दे"।
  रमा के परिवार में रमेश की शादी की तैयारियां हो रही थीं। रमा भी उसमें शामिल थी,परंतु अधूरे मन से। उसे बार-बार विद्या की फिक्र हो रही थी। वह प्रतिदिन देख रही थी कॉलेज में भी विद्या खामोश रहती है,बहुत खामोश रहती है। किसी से बात नहीं करती,हंसना तो जैसे वह भूल ही गई है। रमा विद्या की स्थिति याद कर दिल ही दिल में सिसकती रहती, परंतु ऊपर से खामोश रहती थी।
    भैया ने सच ही कहा है कुछ बातों पर इंसान का वश नहीं रहता,ईश्वर के अधीन रहता है। अब आगे जो भी ईश्वर चाहेंगे वही होगा। ईश्वर विद्या को दु:ख सहने की शक्ति दे।
   रमेश की शादी हो गई और संगीता उसकी दुल्हन बन कर आ गई। संगीता दिखने में बहुत खूबसूरत थी। भोली भाली और मासूम भी। उसमें कोई कमी नहीं थी,परंतु रमेश के दिल पर तो विद्या का राज था। वह उसे भुला नहीं पा रहा था,इसलिए संगीता को भी अपना नहीं पा रहा था।
    कथा जारी है।
                                     क्रमशः


  

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1 Comments

वानी

12-Jun-2023 04:42 AM

Nice

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